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Dear Paarijaat - बारिशों का शहर | कवि, कविता और वो | यात्रा सीरीज - 5

बारिशों का शहर | कवि, कविता और वो | यात्रा सीरीज - 5

Dear Paarijaat

07/05/24 • 6 min

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जब आप किसी शहर में रोज़-दो रोज़ के लिए रुकते हैं- तो आप उस शहर से किसी पहले प्रेम में पड़े स्कूली बच्चे की तरह प्यार करते हैं।
आप हड़बड़ी में शहर के खूबसूरत हिस्से घूम कर उसे समझ लेना चाहते हैं। कलेजा एक नए रोमांस से गर्म हो उठता है। आप बेवकूफों से खिलखिलाते हैं।
दुनिया की सबसे नर्म हथेलियां नए शहर की होती हैं, जिसे पकड़ आप देर रात तक वही रुक जाने के झूठे वादे उस शहर से कर आते हैं।
हमारी खुद की टूटी जिंदगी में उम्मीद बनकर आता है नया शहर, वो जहां हर चीज़ खूबसूरत है। जहां जीवन नीरस नहीं हुआ। जहां कितना कुछ बचा हुआ है ढूंढे जाने को।
उसके तारीफों के पुल बांध कर हम उस शहर से गुज़र जाते हैं। पर दो दिन के यात्रियों के उस पुल के नीचे बहती रहती है रोज़मर्रा की जिंदगी का सच।
वहाँ रहने वाला व्यक्ति भी अपने शहर से प्यार करता है। पर उस प्रेम में एक ठहराव होता है।
उसे पता है कि जीवन के सत्य ने शहर की हथेलियों को नरम नहीं छोड़ा। पर ठंड में शहर के खुरदुरे और चोट लगे हाथों को चूमता है, और उसे खूबसूरत कर देता है।
वो अपने जीवन में इतना व्यस्त होता है कि यात्री की तरह कोई वादा नहीं कर पाता- पर शहर को पता है कि वो उसे छोड़ नहीं जाएगा। वो निवासी है, यात्री नहीं।।
एक यात्री के प्रेयस की निगाहों में बैठ जाती है उसके पैरों की थकान। नज़रें जो यात्री के साथ दूर तलक गईं, और उसे अकेला न होने दिया। ऐसी आंखों में थकान लाज़मी है।
यात्री दुनिया के किसी भी कोने जा सकता है पर अपनी प्रेयस की आँखों से दूर नहीं जा सकता। दुनिया की ऐसी कोई सड़क नहीं है जिसने किसी न किसी की राह नहीं देखी हो।
इसलिए हर रस्ता पैरों को बढ़ने के जगह भले न दे पर वो आँखों के प्रति दयालु रहता है। कभी सड़क निगाह हो जाती है, कभी निगाहों से सड़क गुज़रती है।
मेरी आँखों ने हर क्षितिज देखा है क्योंकि वो व्यक्ति मुझसे निरंतर दूर जाता जा रहा है। मेरी निगाहों ने सब देखा है, एक घर छोड़ दुनिया का हर कोना देखा है।
धरती की गोलाई पर अपने प्रेयस का पीछा करती आंखें गोल हो जाती हैं। फिर एक रोज़ इनमें बस जाती है एक अलग दुनिया, जहाँ प्रेयस अकेला यात्री होता है। फिर एक रोज़ यात्री समझ नहीं पाता कि जिस दुनिया में वो घूम रहा है वो धरती है कि उसके प्रेयस की आंखें।
यात्राएँ कहीं भी शुरू हो सकती हैं, पर उन्हें खत्म आँखों में ही होना चाहिए, वरना इस दुनिया का कुछ मतलब नहीं रह जायेगा। मैंने करवाया है अपने चश्मे का नम्बर ठीक, तुम्हें देखने को दूर से आखिर।।
मैं फिर एक ऐसे शहर आ पहुंचा हूँ जहाँ बारिश नही रुकती। मेरी खिड़की के बाहर एक आसमान है जो थकता ही नहीं। ऐसा लगता है जैसे किसी भी घंटे बाढ़ इस शहर को डुबो देगी पर ऐसा होता दिखता नहीं।
यहाँ किसी को मैंने छाता लिए नहीं देखा। बारिश एक होना उनके लिए अपवाद नहीं है, उसका न होना उन्हें शायद आश्चर्यचकित कर दे। मुझे लगता है कि इस शहर के लोगों में काफी नमी है, जैसे सारी बारिश उनमें ही खत्म हो जाती है।
इस शहर के किसी एक व्यक्ति ने जब तपाक से मुझे गले लगाया तो एक बंद कमरे में भी मैंने खुद को भीगा पाया। जब वो व्यक्ति बोला तो जैसे बारिशों सी आवाज़ आयी।मेरे कानों में उनकी भाषा बारिश के तरह लगती है।
इस शहर की भाषा में एक-एक शब्द बूंदों की तरह टप-टप करता धीरे धीरे जेहन में उतरता जाता है।यहाँ आसमान में नहीं लोगों में भी बारिश बस चुकी है।
पर मुझे बारिशों की आदत कहाँ? मेरे शहर में तो बारिश मौसमी है।
खैर इस शहर में मैंने बहुत ढूंढ कर एक छाता खरीद लिया है। उस दुकान में बस एक ही छाता था, जैसे बरसों से मेरे लिए ही रखा हो। शहर के लोग मुझे अब पागल समझते हैं।
फिर एक रोज़ अचानक किसी ने मुझसे जबरदस्ती वो छाता मुझसे छीन लिया। मैं बहुत देर तक पहली बार उस शहर में भीगता रहा, पर फिर मैं एक कौतूहल का विषय बन गया। बारिश में भी मेरे हृदय को वो हिस्सा शुष्क रह गया, जिस हिस्से में प्रेम होना था। जहाँ तुम्हें होना था।
मेरे बदन पर अब एक जंगल उग आया है, एक चीर का पेड़ हर उस दिन के लिए जिस दिन हम नहीं मिले। और शरीर के बीच एक हृदय का बंजर रेगिस्तान जहाँ बारिश मुझे नहीं छू पाती, उस पुष्प के लिए खाली है, जो उगेगा उस रोज़ जब हम इस दुनिया के छोटे हो जाने पर वापिस कहीं टकरा जाएंगे।
मैंने मृत्यु के बारे में इतना सोचा है कि वो अब सहज लगने लगी है। मैं इन प्रार्थनाओं के साथ सो रहा हूँ कि दुबारा उठना न पड़े। बात तो ये थी कि मैं एक कमरे में सालों तक बंद रहना चाहता हूँ। मुझे जरा भी मालूम नहीं था कि मानव जीवन में इतनी बदहवासी भरी हुई है।
अपने उम्र के कई साल इस कमरे में रहने का कोई न कोई बहाना था मेरे पास मसलन स्कूल, कॉलेज, नौकरी आदि।
बंद कमरे में इतनी शांति है कि मैं कुछ बोल कर भी इसे तोड़ नहीं पाता। मैं जोर-जोर से एक कविता पढ़ता हूँ और कमरा फिर भी शांत रह जाता है। अकेले की खमोशी कोई नहीं तोड़ सकता शायद। हाँ! मुझे हर बार इतना जरूर एहसास जरूर होता है कि मेरा होना कोई काफी जरूरी चीज नहीं है।
मेरा बंद कमरा बार-बार समाज खुलवाता है। मुझे एक काम देता है और मेरा मरना फिर टल जाता है। मैं सोचता हूँ कि उस रोज़ क्या होगा जब मैं कमरा खोलूँगा और इस सभ्यता के पास मुझे कोई काम देने को बचेगा नहीं। मेरी आखिरी जिम्मेदारी निभा लेने के बाद क्या मैं ये कमरा बंद कर लेने को स्वतंत्र हो जाऊँगा? क्या समाज बिना किसी काम के भी कभी मेरा दरवाजा खटखटाने आएगा?
मुझे दुहाई दी जाती है तमाम दुखों की जो जमाने ने एकत्र करके रखी हैं। और ये दुनिया कहती है कि इन दुखों के लिए एक आँसू तो दो। मैं कैसे समझा पाऊँगा कि दुनिया की आपदाओं से भी पहले, मेरे आँसू खर्च हो चुके थे बस तुम्हारे लिए। कवि जो दिवालिया हो चुका है भावनात्मक रूप से। एक सम्भवनाओं से भरी नदी जो बहने से भी पहले अपना पानी खो चुकी है।
1 फरवरी 2024, मैं एक पहाड़ी होटल के बंद कमरे में हूँ...

07/05/24 • 6 min

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