इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
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कावड़ यात्रा की पौराणिक कथा
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
08/05/22 • 6 min
कावड़ यात्रा
वेद पुराणों में शिवजी का अन्य नाम आशुतोष बताया गया है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार महादेव को यह नाम इसीलिए मिला क्योंकि वह भक्तों और साधकों की निष्काम तथा कठोर साधना से तुरन्त प्रसन्न हो जाया करते हैं। इसी कारण के चलते प्राचीन काल से देवता, गन्धर्व, असुर तथा साधारण मानव आदि भोले की आराधना कर अनेक शक्तिशाली एवं असाधारण वर प्राप्त किया करते थे। आजके समय में शैव उपासना की इस अनन्य परम्परा का एक रूप प्रसिद्ध "कावड़ यात्रा" के रूप में देखने को मिलता है। जहाँ लाखों श्रद्धालु कठोर नियमों का पालन करते हुए सैकड़ों किलोमीटर नंगे पैर चलकर भगवान भोलेनाथ को जल अर्पित करते हैं।
हिन्दू धर्म में श्रावण के महीने को अत्यन्त पवित्र माना जाता है। इसी श्रावण में कावड़ यात्रा निकलती है। मुख्यतः उत्तर और पूर्वी भारत में कावड़ यात्रा विशेष रूप से मनाई जाती है, जिसमें असंख्य शिवभक्त गेरुआ वस्त्र का परिधान किए हाथों में एक डंडी पर दो घड़े लटकाए हुए शिवजी का जलाभिषेक करने निकलते हैं। इन दो घड़ों में नदी का पवित्र जल होता है जिसे वे "कावड़" नामक उस डंडी पर लटकाए अपने कंधों पर उठाए शिवालय पहुँचते हैं। इन भक्तों को कावड़िया कहा जाता है जो कि सकड़ों किलोमीटर का मार्ग पैदल की पार करते हुए भोले की शरण में पहुँचते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कावड़ यात्रा की शुरुआत शिवजी को शीतल जल से अभिषेक करने की प्रथा से शुरू हुई है। विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के उपरान्त जब "हलाहल" विष की उत्पति हुई तो समग्र सृष्टि इसके प्रभाव में आकर नष्ट होने वाली थी। सृष्टि को इस विष के प्रलय से बचाने हेतु शिवजी ने हलाहल का पान कर लिया जिसके दुष्प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया। इसी वजह से शिवजी का एक और नाम नीलकंठ भी पड़ा। इसके पश्चात् शिवजी को विष की ज्वाला से शान्ति प्रदान करने हेतु माता पार्वती एवं अन्य देवताओं ने शीतल जल से उनका अभिषेक किया। तभी से भोलेनाथ के जलाभिषेक की परम्परा प्रचलन में आई। यूं तो पूरे वर्ष भक्त शिवालयों में जाकर शिवजी का अभिषेक करते हैं, लेकिन मान्यताओं के अनुसार कावड़ यात्रा के समय ऐसा करने से श्रद्धालुओं को विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है।
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श्रीजगन्नाथ धाम की प्राण-प्रतिष्ठा - Part 4
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
06/29/22 • 16 min
विग्रहों और मंदिर का निर्माण संपन्न हो चुका था। अब केवल उनकी प्रतिष्ठा करनी बाकी थी। लेकिन इसमें भी एक अड़चन थी, जिस भगवान जगन्नाथ की मूर्तियाँ बनाना भी किसी नश्वर के लिए असंभब था, उनकी प्रतिष्ठा भला कोई साधारण ब्राह्मण कैसे कर सकता था। इसके लिए तो शायद देवर्षि नारद अथवा देवगुरु बृहस्पति जैसे दिव्य ऋषियों की आवश्यकता थी।
राजा इन्द्रद्युम्न अब तपस्या में बैठ गए। थोड़ी देर बाद किसी के बुलाने पर राजा का ध्यान खुलता है और वह अपने सामने देवर्षि नारद को खड़ा पाते हैं। नारद को प्रणाम कर वह उनसे मंदिर तथा विग्रहों की स्थापना के बारे में मार्गदर्शन मांगते हैं।
"नारायण, नारायण। यह बात आपकी सत्य है राजन। जिस स्वरूप को बनाने हेतु देवशिल्पी विश्वकर्मा को आना पड़ा, उस स्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा केवल वही कर सकता है जो तीनोलोकों में सवश्रेष्ठ वेदज्ञ हो।" देवर्षि नारद ने राजा से कहा।
"क्षमा करें देवर्षि, परंतु आप और देवगुरु बृहस्पति के अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो इतना उत्कृष्ट ब्राह्मण व पारंगत विद्वान हो?" राजा ने पुनः पूछा।
"मैं उनकी बात कर रहा हूँ राजन, जिनके श्रीमुख से समस्त वेदों की उत्पत्ति हुई है। केवल और केवल मेरे पिता, ब्रह्मदेव के हाथों ही भगवान श्रीहरि का यह कार्य संपादित हो सकता है।"
"अहोभाग्य मेरे, देवर्षि। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अभी आपके साथ ब्रह्मलोक जाकर प्रजापिता को निमंत्रण देना चाहता हूँ, भगवन।" इन्द्रद्युम्न ने प्रसन्न होकर कहा।
"अवश्य राजन।" देवर्षि उन्हें अपने साथ स्वदेह ब्रह्मलोक ले जाने के लिए तैयार हो गए।
इन्द्रद्युम्न ने विद्यापति, विश्वावसु तथा रानी गुंडिचा से विदा ली और जल्द लौटने का वादा कर देवर्षि के साथ ब्रह्मलोक की यात्रा पर निकल गए। जब वह ब्रह्मलोक पहुंचे तो ब्रह्मा जी ध्यानमग्न थे। राजा इंद्रद्युम्न ने उनका ध्यान खत्म होने तक प्रतीक्षा करना ही उचित समझा।
कुछ समय बाद जब ब्रह्माजी तप से जागे तो राजा इंद्रद्युम्न ने उन्हें प्रणाम कर मंदिर की प्रतिष्ठा करने हेतु निमंत्रण दिया जिसे प्रजापिता ने सहर्ष स्वीकार किया। ब्रह्मा की स्वीकृति देते ही राजा का मन अब अत्यंत प्रसन्न हो उठा। वह जल्द से जल्द रानी गुंडिचा के साथ ब्रह्माजी के आने की खुशखबरी बांटने के लिए व्याकुल थे। अतएव अब वह ब्रह्मलोक से पृथ्वीलोक पर वापस आ गये।
वापस नीलांचल में पहुंच कर राजा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। अब शंख क्षेत्र नामक कोई जगह समुद्र तट पर नहीं थी। राजा का महल, वह भव्य मंदिर तथा राजा की बसाई हुई पूरी की पूरी नगरी का कोई नामोनिशान नहीं था। चारों तरफ बस मीलों तक रेत ही रेत थी जैसा कि किसी भी सागर तट पर होता है। राजा को लगा कि वह अवश्य ही सपना देख रहे हैं, क्योंकि ऐसा भला कैसे हो सकता है कि कुछ ही घंटों पहले उन्होंने यहीं रानी गुंडिचा से बात की थी, और अब वहां कुछ भी नहीं था। रानी, विद्यापति, विश्वावसु, उनका मंत्री परिषद, प्रजा, सारे कारीगर यहां तक के हाथी घोड़े भी वहां से अदृश्य हो चुके थे।
राजा बहुत देर तक रानी गुंडिचा और विद्यापति का नाम पुकार पुकार कर उन्हें बुलाते रहे। अंत में दुख से व्याकुल, चिंतित होकर वहीं समुद्र किनारे रेत पर बैठ गए।
"अब फिर कौन सी परीक्षा ले रहे हो प्रभु, अब फिर कौन सी..." यही एक वाक्य वह बार बार जप रहे थे।
शाम हुई तो उन्हें कुछ लोग नज़र आये। इंद्रद्युम्न उनके पास जाकर उस जगह के बारे में पूछने लगे। सामने वाले आदमी ने जो कहा वह सुनकर राजा के पैरों तले की भूमि खिसक गई। उस आदमी ने कहा कि, "लगता है आप विदेशी हो मान्यवर, यह जगह उत्कल देश है और यहां पिछले चौदह पीढियों से प्रवल प्रतापी राजा गाल माधव का परिवार साशन करता आ रहा है।"
"चौदह पीढ़ियों से? यह असंभव है। मैंने तो सुना था कि यहाँ राजा इंद्रद्युम्न का शासन है?" राजा ने कहा।
"मैंने किसी इन्द्रद्युम्न का नाम कभी नहीं सुना । क्षमा कीजियेगा, लोग गलत पते पर आते हैं, मगर आप तो शायद गलत राज्य में ही आ गये हैं मान्यवर।" यह कहकर वह आदमी हंसने लगा।
राजा का दुःख अब किसी अनजान आशंका में बदल रहा था। लेकिन वह उस आदमी को पागल समझ कर आगे चलने लगे। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें अखिरकर एक मंदिर की ध्वजा दिखाई दी।
"अवश्य ही मेरा मंदिर है। निश्चित ही विद्यापति तथा बाकी के लोग यहां मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे!" यह कहकर इन्द्रद्युम्न भागते हुए मंदिर के सामने पहुंचते हैं। यद्यपि उन्हीं के द्वारा भगवान जगन्नाथ के लिए बनाया गया यह वही मंदिर था, लेकिन उसके अतिरिक्त कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी जिसे वह पहचानते हों।" सत्य जानने के लिये व्याकुल राजा मंदिर के बाहर बैठे एक ब्राह्मण के पास पहुंचे। अब फिर से अचंभित होने की बारी इंद्रद्युम्न की ही थी।
ब्राह्मण ने कहा, " यह राजा गाल माधव के कुल देवता भगवान विष्णु का मंदिर हैं। बहुत सालों पहले राजा के पूर्वजों को यह विशाल मंदिर पूरी तरह मिट्टी और रेत में दबा हुआ मिला था।"
राजा को आश्चर्यचकित देख ब्राह्मण ने आगे कहा,
“हे विदेशी, तुम्हारी जिज्ञासा समझ सकता हूँ मैं। भला इतना विशाल मंदिर मिट्टी में कैसे दबा हुआ था यह जानने की उत्सुकता है ना तुम्हारे भीतर?"
राजा अपनी सुध पूरी तरह से खो चुके थे और केवल सर हिला कर ब्राह्मण को हाँ में उत्तर दिया।
"तो सुनो, मंदिर को लेकर के एक लोककथा प्रचलित है। मैंने अपने पितामह से सुना था, उन्होंने अपने पितामह से। लगभग एक हज़ार वर्ष पहले, यहां इन्द्रद्युम्न नामक एक राजा का साशन था। हमारे महाराज की तरह ही वह भी प्रचंड विष्णु भक्त था। उसी ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। परंतु प्रतिष्ठा करने से पूर्व, एक दिन शायद ब्रह्मा जी को निमंत्रण देने ब्रह्मलोक चला गया। बस उस दिन के बाद से उसे किसी ने नही देखा।"
इन्द्रद्युम्न को यह सब सुनकर अपने कानों पर विश्वास...
Diwali Special Episode
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
11/12/23 • 7 min
जिन भी रीतियों का अनुसरण करके हम दीवाली का त्यौहार मनाते हैं उसके पीछे क्या पौराणिक महत्व है, ये एपिसोड इसी विषय पर प्रकाश डालता है।
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कुबेर की भगवान शिव से मैत्री की कथा
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
10/19/22 • 8 min
कुबेर को धन-संपत्ति के देवता के रूप में सभी जानते हैं, परन्तु उनके पूर्व जन्मों की कथा बहुत कम लोगों को पता होगी। शिव पुराण के इस प्रसंग में सुनिए किस प्रकार मंदिर में चोरी करने वाले एक चोर ने, जाने-अनजाने किये गए अपने कर्मों के कारण कुबेर के पद को प्राप्त करने के साथ-साथ भगवान शंकर के समीप स्थान भी प्राप्त किया।
काम्पिल्य नगर में यज्ञदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम गुणनिधि था। गुणनिधि अपने नाम के विपरीत बहुत ही दुराचारी और उद्दंड था। उसकी इन्ही हरकतों से परेशान होकर यज्ञदत्त ने उसे त्याग दिया। घर से निकलने के बाद वह कई दिनों तक भूखा भटकता रहा। एक दिन मंदिर से चढ़ावा चुराने के उद्देश्य से वह शिव मंदिर में गया। उसने वहाँ अपने कपड़ों को जलाकर उजाला किया; मानो भगवान शंकर को दीप दान कर रहा हो। उसको चोरी के अपराध में पकड़ा गया और मृत्युदंड दिया गया। अपने बुरे कर्मों के कारण उसे यमदूतों ने बांध लिया; लेकिन शिव के गणों ने वहाँ आकर उसे छुड़ा लिया। भगवान शंकर के गणों के साथ रहकर उसका मन शुद्ध हुआ। अंत में वह उन्हीं शिवगणों के साथ शिवलोक चला गया। वहाँ सारे दिव्य भोगों का उपभोग करके उमा-महेश्वर की सेवा करने से पुनर्जन्म में वह कलिंगराज अरिंदम का पुत्र बना। कलिंगराज ने अपने पुत्र का नाम दम रखा। वह हमेशा शिव की आराधना में लगा रहता था और बालक होने पर भी वह दूसरे बालकों के साथ शिव का भजन किया करता था। युवा अवस्था को प्राप्त होने और पिता के स्वर्गवास के बाद वह कलिंग के सिंहासन पर विराजमान हुआ।
राजा दम बड़ी प्रसन्नता के साथ सभी दिशाओं में शिव का प्रचार करने लगे। उन्होंने अपने राज्य के सभी ग्रामों के शिव मंदिरों में दीपदान की प्रथा का प्रचलन किया। उन्होंने सभी ग्राम प्रधानों को निर्देश दिया की उनके गाँव के आस-पास जितने भी शिवालय हों वहाँ बिना किसी सोच-विचार के सदा दीप जलाना चाहिए। आजीवन इसी धर्म का पालन करने के कारण राजा दम ने बहुत सारी धर्म संपत्ति अर्जित की और मृत्यु के पश्चात् अलकापुरी के स्वामी हुए।
ब्रह्मा के मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण (कुबेर) हुए। उन्होंने पूर्व जन्म में महादेव की आराधना करके विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित इस अलकापुरी का उपभोग किया। जब वह कल्प व्यतीत हुआ और मेघवाहन कल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्त का पुत्र, जो प्रकाश का दान करने वाला था, कुबेर के रूप में अत्यंत कठिन तपस्या करने लगा। दीपदान मात्र से मिलने वाले शिव के प्रभाव को जानकर वह शिव की नगरी काशी गया और वहाँ ग्यारह रुद्रों का ध्यान करके अनन्य भक्ति और स्नेह के साथ तन्मयता से शिव के ध्यान में मग्न होकर निश्छल भाव से बैठ गया। वर्षों तक ऐसे तपस्या करने के बाद वहाँ भगवान शिव स्वयं देवी पार्वती के साथ प्रकट हुए। भगवान शिव ने प्रसन्न मन से अलकापति कुबेर को देखा और कहा,"अलकापति! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देने को तैयार हूँ। तुम अपनी मनोकामना बताओ।"
यह वाणी सुनकर कुबेर ने जैसे ही अपनी आँखें खोलकर देखा, उनको भगवान शिव सामने खड़े दिखाई दिये। वह प्रातःकाल के सूर्य जैसे हज़ारों सूर्यों से भी ज्यादा तेजवान थे और चन्द्रमा उनके मस्तक पर चाँदनी बिखेर रहे थे। भगवान शंकर के ऐसे तेज से कुबेर के आँखें बंद हो गयीं। कुबेर अपने नेत्र बंद कर अपने मन में विराजमान भगवान शिव से बोले,"नाथ! मेरे नेत्रों को वह दिव्यदृष्टि दीजिये जिससे मैं आपके दर्शन कर सकूँ। आपके प्रत्यक्ष दर्शन कर सकूँ यही मेरे लिए सबसे बड़ा वर है। मुझे दूसरा कोई वर नहीं चाहिए।"
कुबेर की यह बात सुनकर उमापति ने अपनी हथेली से उनका मस्तक छूकर उन्हें देखने की शक्ति प्रदान की। दृष्टि की शक्ति मिल जाने पर यज्ञदत्त के उस पुत्र ने आँखें खोली और उनकी नजर देवी पार्वती पर पड़ी। देवी को देखकर वह मन ही मन सोचने लगा,"भगवान के समीप यह सर्वसुन्दरी कौन हैं? इन्होंने ऐसा कौन सा तप किया है, जो मेरी तपस्या से भी बड़ा है। यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभा-सब कितना अद्भुत है।"
वह ब्राह्मणकुमार बार-बार यही कहकर देवी की तरह घूर-घूरकर देखने लगा। इस प्रकार वामा के अवलोकन से उसकी बायीं आँख फूट गयीं। इस पर देवी पार्वती ने महादेव से कहा,"प्रभु! यह दुष्ट तपस्वी बार-बार मेरी तरफ देखकर क्या बकवास कर रहा है?" देवी की यह बात सुनकर भगवान शिव ने हँसते हुए कहा,"उमा! यह तुम्हारा पुत्र है और तुम्हें दुष्ट दृष्टि से नहीं देख रहा है, अपितु तुम्हारी अपार तपःसंपत्ति का वर्णन कर रहा है।" देवी से ऐसा कहकर भगवान शिव कुबेर से बोले,"वत्स! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न होकर तुम्हें वर देता हूँ। तुम निधियों के स्वामी और यक्ष, किन्नरों और राजाओं के भी राजा होकर पुण्यजनों के पालक और सबके लिये धन के दाता बनो। मेरे साथ तुम्हारी मैत्री सदा बनी रहेगी और मैं नित्य ही तुम्हारे निकट निवास करूँगा। मित्र! तुम्हारा स्नेह बढ़ाने के लिये मैं अलकापुरी के पास ही रहूँगा। आओ, इन उमादेवी के चरणों में प्रणाम करो, क्योंकि ये तुम्हारी माता हैं। महाभक्त यज्ञदत्त-कुमार! तुम अत्यंत प्रसन्नचित्त होकर इनके चरणों में गिर जाओ।"
इस प्रकार वर देकर भगवान शिव ने पार्वती से कहा,"देवेश्वरी! इस पर कृपा करो। तपस्विनी! यह कुबेर तुम्हारा पुत्र है।" भगवान शंकर का यह कथन सुनकर जगदम्बा पार्वती ने प्रसन्नचित्त होकर यज्ञदत्तकुमार से कहा,"वत्स! भगवान शिव में तुम्हारी निर्मल भक्ति सदैव बनी रहे। महादेवजी ने तुम्हें जो वर दिये हैं, वे सब उसी रूप में तुम्हें सुलभ हों। मेरे रूप के प्रति ईर्ष्या करने के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्द होंगे।" इस प्रकार कुबेर को वर देकर भगवान महेश्वर पार्वती के साथ अपने धाम चले गये। इस प्रकार कुबेर ने भगवान शंकर की मैत्री प्राप्त की और कैलाश पर्वत के पास अलकापुरी उनका निवास स्थान बना।
Story of Kuber’s Past Births<...
ईला और बुध
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
07/13/22 • 10 min
वैवस्वत मनु और महारानी श्रद्धा दीर्घ काल तक निःसंतान रहे। पुत्रहीनता के कष्ट को कम करने हेतु महर्षि वशिष्ठ के परामर्श अनुसार, मनु और श्रद्धा ने भगवान मित्र और वरुण की उपासना करने का निर्णय लिया। वशिष्ठ ऋषि के संरक्षण में ही मनु ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन करवाया। भगवान मित्र-वरुण से मनु ने अपने वंश को आगे चलाने हेतु एक पुत्र की कामना की थी, परंतु विधि का विधान कुछ और ही था।
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जरासन्ध का जन्म और कंस से उसका रिश्ता
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
08/10/22 • 8 min
जरासन्ध मगध का शासक था और श्रीकृष्ण के जीवन से उसका गहरा सम्बन्ध था। इस कहानी में हम जरासन्ध के बारे में जानेंगे और पता लगाएँगे कि उसका श्रीकृष्ण से क्या रिश्ता था।
मगध पर जब राजा बृहद्रथ का राज्य था तब उसकी प्रजा बहुत खुश थी। बृहद्रथ का विवाह काशी की जुड़वा राजकुमारियों से हुआ और वो एक आनंदमय गृहस्थ जीवन में बँध गया। जैसे-जैसे समय बीतता गया राजा के मन में पुत्र प्राप्ति की कामना तीव्र होती गई।
अन्ततः बृहद्रथ ने निर्णय लेकर अपनी पत्नियों को इस बारे में बताने के लिए बुलाया। वो बोला, "प्रियाओं! मेरी बात ध्यान से सुनो। हमारी सन्तान की कामना पूर्ण करने के लिए मैंने वन-गमन करने का निर्णय लिया है।" बृहद्रथ की बात सुनकर रानियों को काफ़ी धक्का लगा किन्तु उन्होंने बृहद्रथ की बात मान ली।
राजा ने पैदल ही अपना राज्य छोड़ दिया और वन-गमन का पथ अपनाकर ऋषि चण्डकौशिक की शरण में गया। राजा ने सच्चे मन से ऋषि की सेवा प्रारम्भ की और अपने कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाए। ऋषि इस समर्पण से काफी प्रसन्न हुए और राजा से वर माँगने को कहा, "हे राजन! मैं तुम्हारे समर्पण से बहुत प्रसन्न हुआ। तुमने एक राजा होकर भी निम्नतम कार्यों को भी पूरी लगन के साथ किया। मैं तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूँ। बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है?"
राजा बृहद्रथ ने ऋषि चण्डकौशिक की चरण वन्दना करते हुए कहा, "हे ऋषिवर! मैं एक सन्तानहीन राजा हूँ। मुझे सिर्फ़ एक सन्तान की चाह है, जो मेरे राज्य का वारिस बने। मैं बस इतनी ही इच्छा रखता हूँ। मैं एक पिता बनना चाहता हूँ। हे ऋषिश्रेष्ठ! मुझे सन्तान प्राप्ति का वरदान दीजिए।"
ऋषि ने राजा पर दयाभाव दिखाते हुए उसे एक फल दिया और कहा कि ये फल अपनी किसी भी एक पत्नी को दे देना। राजा उस दैवीय फल को लेकर वन से वापस अपने महल आ गया। राजा अपनी दोनों पत्नियों को खुश देखना चाहता था इसलिए उसने उस फल को दो भागों में बराबर बाँटकर अपनी पत्नियों को दे दिया। जिसके बाद उन दोनों के यहाँ आधी-आधी मृत सन्तानों ने जन्म लिया।
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अजगरोपाख्यान - नहुष उद्धार
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
10/12/22 • 14 min
अपने अहंकार के कारण अगस्त्य ऋषि के शाप का भागी बने नहुष ने वर्षों पृथ्वी पर एक अजगर के रूप में व्यतीत किए। नहुष की कथा के इस भाग में हम देखेंगे अंततः कैसे हुआ नहुष का उद्धार।
एक समय इंद्र रह चुके नहुष का सर्प बनकर धरा लोक पर पतन हुए हजारों वर्ष बीत चुके थे। महर्षि अगस्त्य के श्राप के कारण इतने वर्षों के उपरांत भी नहुष को सब कुछ पूरी तरह से याद था। वह जानते थे कि वह चन्द्रवंशी सम्राट आयु के पुत्र तथा अपने अहंकार का ही शिकार बने एक अभागे मनुष्य हैं जिन्होंने अपने अहंकार के वशीभूत होकर इन्द्र के पद को पाकर भी खो दिया। हर समय अपने द्वारा की गयी भूल को याद करते हुए सर्प रूपी नहुष पश्चाताप करते व अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा करते। हिमालय के तलहटी पर सरस्वती नदी के किनारे वन में एक विशाल सर्प के रूप में वास करने वाले नहुष जीव जंतु तथा अपने समीप आने वाले मनुष्यों का भक्षण कर अपनी क्षुधा का निवारण करते। ऐसे ही अपना जीवन व्यतीत करते नहुष अब द्वापर युग में पहुंच चुके थे।
वनवास काल के समय पांडव विचरण करते हुए इसी वन में आये जहाँ नहुष का वास था। एक बार अपने लिए खाना ढूंढ़ते ढूंढ़ते भीम गलती से नहुष के पास पहुंच जाते हैं। बहुत दिनों से भूखे नहुष ने अब भीम को देख कर उन्हें अपना भोजन बनाने का निश्चय किया। सर्प रूपी नहुष की विशाल काया से अचंभित भीम भी एक क्षण के लिए इतने बड़े सांप को देख कर तटस्थ हो गए थे। अब नहुष आगे बढे और अपनी जीभ लहलहाते हुए भीम की ओर अग्रसर हुए। हर समय अपने बल को लेकर अहंकार करने वाले भीम को आज कोई सर्प अपनी कुंडली में जकड़ रहा था और बहुत कोशिशें करने के बाद भी महाबली भीम असहाय थे।
भीम बस नहुष का भोजन बनने ही वाले थे कि वहां पर धर्मराज युधिष्ठिर का आगमन होता है। चूंकि बहुत देर से भीम वापस नहीं आये थे तो उन्हें खोजते खोजते युधिष्ठिर वहां पहुंच जाते हैं। अपने महा बलशाली भ्राता को एक सांप के चंगुल में इस तरह असहाय फंसा हुआ देख युधिष्ठिर समझ जाते हैं कि यह कोई साधारण सर्प नहीं हो सकता।
“हे सर्प, मैं युधिष्ठिर हूँ। तुमने जिसे अपना भोजन बनाने का निश्चय किया है,वह मेरा अनुज है। कृपा करके तुम उसे जाने दो, मैं तुम्हे इसके बदले कोई और उत्कृष्ट भोजन देने का वचन देता हूँ।” भीम को बचाने के लिए युधिष्ठिर ने सर्प से कहा।”
“हे कुंती पुत्र, मैं भली भांति जानता हूँ तुम कौन हो. और तुम्हारे अनुज को भी जानता हूँ। लेकिन मैं भूख की ज्वाला से विवश हूँ, भीम जैसे हट्टे कट्टे मनुष्य का भोजन कर मैं कई दिनों तक क्षुधा की ज्वाला से स्वयं की रक्षा कर सकता हूँ। तुम वापस लौट जाओ, मेरा भीम को खाना निश्चित हैं।” भूख से तिलमिलाते नहुष ने उत्तर दिया।
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श्रीकृष्ण का नीलमाधव रूप (Part 2)
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
06/15/22 • 24 min
द्वापर युग का समापन होकर अब कलयुग की शुरुआत हुए कुछ वर्ष बीत चुके थे। निषाद राज विश्वावसु का जन्म सबर कुल में हुआ था। वह उत्कल राज्य में एक आदिवासी कबीले के सरदार हुआ करते थे। एक दिन वन में शिकार करने के लिए निकले विश्वावसु देर रात तक भी वापस घर नहीं लौटे, किसी अनहोनी की आशंका से उनकी पत्नी, बेटी और कबीले के बाकी साथी कांपने लगे। कई दिनों तक विश्वावसु की खोज में आदिवासी सैनिकों ने दिन रात एक कर दिए परंतु उन्हें कहीं पर भी अपने राजा का कोई पता नहीं मिला। थक हार कर सब उदास मन से विश्वावसु की कुशलता की कामना कर प्रार्थना करने लगे।
जंगल में एक भालू का पीछा करते करते भटक चुके थे विश्वावसु। हालांकि वह कई बार इसी वन में शिकार करने हेतु आया करते थे, लेकिन आज पता नहीं क्यों उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था। शायद ही कोई मायावी शक्ति आज उन्हें इस जंगल से बाहर नहीं निकलने देना चाहती थी। अंत में बहुत कोशिशें करने के बाद वह थक हार कर एक पेड़ के नीचे विश्राम करने लगते हैं। कुछ देर के बाद उसी पेड़ से थोड़ी ही दूरी पर स्थित एक गुफ़ा के अंदर से कोई चमकती हुई चीज विश्वावसु का ध्यान अपनी ओर खींचती है। उत्सुकतावश विश्वावसु गुफा के अंदर से आती रोशनी की ओर बढ़ने लगते हैं। वह जितना उस गुफा के पास जाते, अंदर से आने वाली रोशनी और अधिक उज्जवल होने लगती। इस तरह उस रोशनी का पीछा करते करते आखिरकार वह गुफा के अंदर प्रवेश कर जाते हैं।
गुफ़ा के अंदर घुसते ही विश्वावसु के मन को मानो अपने आप ही सुकून मिलने लगता है, एक अद्भुत सी शांति विराजमान थी उस गुफ़ा के भीतर। थोड़ी ही देर पहले इस वन से बाहर निकलने के लिए व्याकुल निषाद राज का मन अब न जाने क्यों इसी गुफ़ा में हमेशा के लिए रह जाने को कर रहा था। बहरहाल अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए विश्वावसु अब जहां से रोशनी आ रही थी, उसी दिशा में गुफा के और अंदर चले जाते हैं।
उस अति उज्ज्वल आलोक के निकट पहुँच कर मानो विश्वावसु के पैरों तले जमीन ही खिसक जाती है। जैसे कि कोई प्रेत देख लिया हो, उसी के डर से अब वह कांपने लगते हैं। उनकी आंखों के सामने अब जो सब हो रहा था, वह सच नहीं हो सकता, भला कैसे कोई मूर्ति जीवित हो सकती है?
"क्या यह मेरा वहम है या फिर किसी दुष्ट असुर की माया?" डर के मारे पसीने से लथपथ विश्वावसु अब खुद से यही सवाल पूछ रहे थे। क्योंकि जो कुछ भी उनकी आंखों के सामने घट रहा था, उस पर विश्वास करना उनके लिए भी असंभव था।
विश्वावसु के सामने एक गहरे नीले रंग की मूर्ति रखी हुई थी जिससे लगातार तेज रोशनी निकल रही थी। हैरान कर देने वाली बात यह थी, की उस मूर्ति की आंखें खुली हुई थीं और किसी जीवित मनुष्य के भाँति उसकी पुतलियां भी जीवित थी। रह रह कर वह मूर्ति विश्वावसु को देख कर मंद मंद हंस भी रही थी। यदि कोई साधारण मनुष्य होता तो यह सब देखकर शायद भय से उसके प्राण ही निकल जाते, लेक़िन निषाद राज ने हिम्मत नहीं हारी, अपने अंदर शेष बचे सारे साहस को एकजुट कर वह मूर्ति की ओर देख रहे थे।
"कौन हो तुम? क्या चाहते हो? मुझे क्यों अपनी माया का शिकार बना रहे हो?" विश्वावसु ने उस मायावी मूर्ति से प्रश्न किया।
बिना उत्तर दिए ही वह मूर्ति केवल मंद मंद मुस्कान कर रही थी। जिसे देख कर विश्वावसु और आतंकित हो रहे थे।
"मुझे पता है तुम ही मुझे यहाँ लाये हो। अब लाये हो तो बताते क्यों नहीं क्या चाहिए मुझ से? यदि मेरे प्राण लेने हैं तो ले लो और ख़त्म करो। यह क्या बेकार ही मुस्कुरा रहे हो?" गले में डर के मारे दबी हुई आवाज़ में विश्वावसु ने फिर मूर्ति से सवाल किया ।
"हा हा हा... इतनी जल्दी मुझे भूल गए सबर नरेश! मैं तो युगों युगों से तुम्हारे साथ ही हूँ।" मूर्ति ने बड़ी चपलता के साथ उत्तर दिया।
"मैं कुछ समझा नहीं, तुम और मेरे साथ?" आश्चर्यचकित होकर विश्वावसु ने पूछा।
"अभी स्मरण किये देता हूँ निषाद राज।" मूर्ति के ऐसे कहने के साथ ही अब उस गुफ़ा में वेद मंत्रोचारण की ध्वनि गूंजने लगी। सारे वातावरण में तुलसी और चंदन की सुगंध महकने लगी। विश्वावसु को अब ऐसा प्रतीत हो रहा था की मानो वह किसी हवन के पास खड़े हुए हों। धीरे धीरे उन्हें एक असाधारण चेतना का एहसास होता है और उनकी आंखों के सामने रामायण और महाभारत काल की घटनाएं चित्रित होने लगती हैं।
अब कोई संदेह नहीं था मन में। आंखों से खुशी के आंसू टपक रहे थे विश्वावसु के। इतने वर्षों बाद अपने प्रभु को स्वयं के सामने देख फूले नहीं समा रहे थे सबर राज। त्रेता में बाली, द्वापर में जारा और अब कलयुग में विश्वावसु बने इस महान विष्णु भक्त के सामने उसके आराध्य श्री हरि स्वयं नीलमाधव की मूर्ति बने खड़े थे।
"हे भगवन! अहोभाग्य मेरे जो मुझे इस जीवन में भी आपके चरणों की सेवा करने का पुनः अवसर मिला। मैं तो धन्य हो गया, केशव।" विश्वावसु ने नीलमाधव की ओर देखते हुए कहा।"
"जब तुमने बाण चलाकर द्वापर युग में मुझे मेरे नश्वर शरीर से मुक्ति दिलाई थी, तब मैंने कहा था कि तुम्ही आने वाले युग में मेरे आद्य सेवक बनोगे, ज़ारा। अब वह समय आ चुका है। इसी नीलकन्दर गुफ़ा में नीलमाधव के रूप में मैं अवतरित हुआ हूँ। कलयुग में जब अधर्म अपनी पराकाष्ठा पार कर जाएगा, तो हे विश्वावसु, मैं अपना कल्कि अवतार लूंगा। तब तक यही मेरा माधव रूप ही कल युग के सकल प्राणियों के लिए पूजनीय होगा।" यह कहकर भगवान नीलमाधव ने विश्वावसु को अपने धरावतरण का उद्देश्य समझया।
"हे भगवान, मैं तो आपका दास हूँ, जो प्रभु की इच्छा, वही होगा।" यह कहकर विश्वावसु भगवान नीलमाधव की सेवा में लग गए। इसी बीच बहुत दिन बीत चुके थे और विश्वावसु का परिवार उनके जीवित होने की आशा अब छोड़ चुका था। यहाँ तक कि कबीले में भी नए सरदार का चुनाव व नियुक्ति की जा चुकी थी।
भगवान नीलमाधव ने इन सब की सूचना विश्वावसु को दी और उनके बिना उनके परिवार का क्या हाल हो ...
गरुड़ की जन्मकथा | Story of Garuda's Birth
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
11/16/22 • 7 min
अपने नाग पुत्रों की सहायता से कद्रू ने छलपूर्वक विनता से बाजी जीत ली और विनता उसकी दासी बनकर रहने लगी। अपने पहले पुत्र अरुण के शाप के कारण दासत्व का जीवन व्यतीत करती हुई विनता उस शाप से मुक्ति पाने के लिए अपने दूसरे पुत्र के जन्म की प्रतीक्षा करने लगी।
समय आने पर विनता के दूसरे अंडे से महाशक्तिशाली गरुड़ पैदा हुए। उनकी शक्ति, गति, दीप्ति और वृद्धि विलक्षण थीं। आँखे बिजली की तरह पीली और शरीर अग्नि के समान तेजस्वी था। जब वो अपने विशालकाय पंख फड़फड़ाकर आकाश में उड़ते तो लगता स्वयं अग्निदेव आ रहे हैं। जब गरुड़ ने अपनी माता को नागमाता की दासी के रूप में देखा तो उनसे इसका कारण पूछा। विनता ने गरुड़ को कद्रू के साथ लगी बाजी के विषय में बता दिया।
गरुड़ ने अपनी माता को इस शाप से मुक्त कराने की ठान ली और नागों के पास जाकर बोले,"मेरी माता को दासत्व से मुक्त करने के बदले में तुम्हे क्या चाहिए?" नागों ने बहुत सोच विचार करने के बाद गरुड़ से कहा,"हमारी माता के शाप के कारण हम जनमेजय के यज्ञ कुंड में भस्म हो जायेंगे। इससे हमे बचाने के लिए तुम हमारे लिए देवलोक से अमृत लेकर आ जाओ। अगर तुम देवलोक से अमृत लाने में सफल हो गए तो तुम्हारी माता दासत्व से मुक्त हो जाएँगी।"
गरुड़ देव ने नागों की बात मान ली और अमृत लेने के लिए स्वर्गलोक की और निकल पड़े। इन्द्र और अन्य देवताओं को जब इस बात का पता चला की गरुड़ अमृत लेने के लिए आ रहे हैं तो उन्होंने अमृत की रक्षा करने के लिए गरुड़ का सामना करने का निश्चय किया; परन्तु परम प्रतापी गरुड़ के सामने उनकी एक ना चली। गरुड़ ने अपने प्रहारों से इन्द्र समेत सभी देवताओं को मूर्छित कर दिया और अमृत तक पहुँच गए।
गरुड़ जब अमृत पात्र लेकर आसमान में उड़े जा रहे थे तब भगवान् विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और उनको पूछा,"हे महाप्रतापी गरुड़! तुमको अमृत पीना है तो इस पात्र से अमृत पी लो, पूरा पात्र लेकर जाने की क्या आवश्यकता है?" गरुड़ ने भगवान् विष्णु को उत्तर दिया,"मुझे ये अमृत स्वयं के लिए नहीं चाहिए अपितु मेरी माता को शाप से मुक्ति दिलाने के लिए चाहिए।"
गरुड़ के मन में अमृत के लिए कोई भी लालच ना देखकर भगवान् विष्णु अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने गरुड़ से एक वर माँगने को कहा। गरुड़ ने कहा,"भगवान्! आप मुझे बिना अमृत पान के ही अमर कर दीजिये और मेरे प्रतिबिम्ब को अपनी ध्वजा में स्थान दीजिये।" भगवान् ने तथास्तु कहकर गरुड़ की इच्छा पूरी कर दी।
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चित्रकेतु के वृत्रासुर बनने की कथा | Chitraketu
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye
11/02/22 • 17 min
जो भी ऋषि दधीचि की कथा से परिचित है उसे पता है कि किस प्रकार असुर वृत्त्र किसी भी धातु से बने हुए अस्त्र से अवध्य था और उसका संहार करने के लिए ऋषि दधीचि ने अपने प्राणों का परित्याग कर अपनी अस्थियाँ देवराज इन्द्र को दान कर दी थीं। यह कहा उसी वृत्त्र के पूर्व जन्म की है।
शूरसेन देश में चित्रकेतु नामक एक राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। राजा की शक्ति इतनी थी कि उनके राज्य में रहने वालों के लिए समस्त खाने की चीज़ें स्वयं ही उत्पन्न होती थीं। राज्य में सुख-समृद्धि ऐसी थी कि प्रजा, राजा को दूसरा ईश्वर मानती थी। धन-दौलत, ऐश्वर्य, चित्रकेतु को किसी भी वैभव की कमी नहीं थी। अपने पराक्रम और शौर्य से उन्होंने कई सुंदर स्त्रियों का ह्रदय भी जीता था। कुल-मिलाकर चित्रकेतु की एक करोड़ रानियाँ थीं। परंतु इतने सब ऐश्वर्य के बाद भी वह निःसंतान थे। इसलिए सदैव उनका मन चिंतित रहता था।
एक दिन तीनों लोकों का भ्रमण करने हेतु निकले प्रजापति अंगिरा ऋषि ने चित्रकेतु के महल में आतिथ्य स्वीकार किया। राजा के पास सब कुछ होने के बाद भी उनका उदास चेहरा देख ब्रह्मर्षि ने उनसे इसका कारण पूछा। चित्रकेतु ने उत्तर देते हुए कहा, "हे भगवन! समग्र सृष्टि के सारे सुगंधित फूल मिलकर भी जैसे किसी भूखे मनुष्य की भूख नहीं मिटा सकते, वैसे ही यह समस्त ऐश्वर्य मिलकर भी एक निःसंतान पिता का दुःख दूर नहीं कर सकते। भूखे मनुष्य को जिस तरह खाद्य की आवश्यकता है ठीक उसी तरह, हे भगवन, मुझे एक पुत्र प्रदान कर मेरी इस पीड़ा को हर लें।"
त्रिकालदर्शी ऋषि अंगिरा को यह भली-भांति पता था कि चित्रकेतु के भाग्य में संतान सुख नहीं है, परंतु उनके हठ के आगे ब्रह्मर्षि भी विवश हो गए। अतएव यज्ञ का आयोजन कर उससे उत्पन्न चरु को उन्होंने राजा की पटरानी कृतद्युति को दिया। समय आने पर कृतद्युति ने एक अत्यंत सुंदर पुत्र को जन्म दिया। एक करोड़ रानियाँ होने के बाद भी निःसंतान रहने वाले चित्रकेतु के लिए पहली संतान का सुख स्वर्ग लोक पर विजय प्राप्त करने से भी अधिक आनंददायी था। राजकुमार के आ जाने से पूरे राज्य में मानो उत्सव का माहौल बन गया था।
परंतु यह खुशियाँ अधिक दिनों तक टिकने नहीं वाली थीं। चूँकि रानी कृतद्युति ने राजकुमार को जन्म दिया था, तो राजा स्वयं ही अपनी पटरानी की ओर अपना समस्त ध्यान देने लगे। यह देख बाकी की रानियों में ईर्ष्या भाव उत्पन्न होने लगा। उनका द्वेष इतना बढ़ गया कि वह राजा से उनकी तरफ विमुखता के लिए नवजात शिशु को ही दोषी समझने लगीं। यह घृणा इतनी बढ़ गई कि, एक दिन क्रोध में आकर उन्होंने नन्हे राजकुमार को विष दे दिया। जब तक कृतद्युति को यह पता चलता तब तक बहुत देर हो चुकी थी, राजकुमार के प्राणों ने उनके नश्वर शरीर को त्याग दिया था।
अपने बेटे के मृत शरीर को देख हर माता-पिता की जो अवस्था होती है वही राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति की भी हुई। दोनों अपने भाग्य को कोसते हुए छाती पीट पीट कर रोने लगे। थोड़ी देर में चित्रकेतु संज्ञाहीन होकर नीचे गिर पड़े। राजा की यह हालत देख कर स्वर्ग से अंगिरा ऋषि और देवर्षि नारद स्वयं चित्रकेतु के पास आये और उन्हें समझाने लगे।
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FAQ
How many episodes does इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye have?
इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye currently has 63 episodes available.
What topics does इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye cover?
The podcast is about Fiction, Drama, History and Podcasts.
What is the most popular episode on इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye?
The episode title 'Meghdoot Part-1 (यक्ष को देश-निकाला)' is the most popular.
What is the average episode length on इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye?
The average episode length on इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye is 10 minutes.
How often are episodes of इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye released?
Episodes of इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye are typically released every 6 days, 21 hours.
When was the first episode of इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye?
The first episode of इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye was released on May 25, 2022.
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